मेरी खिड़की से दिखती हैं कई ऊँची ऊँची इमारतें...
दिखती हैं काँच के रंगीन टुकड़ों सी रंग-बिरंगी खिड़कियाँ...
बड़े ही सलीक़े से एक के उपर एक रखी हुए...
कुछ से छन कर आती है मद्यम सी रोशनी... कोई ग़ज़ल रहती है शायद...
कुछ से छोटे मोटे पेड़ व बेलें लटकी नज़र आती हैं... रहता होगा बाग़ों को पंख देने की लालसा रखने वाला कोई...
कुछ से दिखते हैं गाँव के नज़ारे... वही नौसिखिया रहता है शायद जो सीख नहीं सका अब तक शहर के तरीके...
कई प्रतिभाओं के धनी अनेकों लोग रहते होंगे शायद वहाँ...
पर, अपनी खिड़की से मुझे तो दिखती हैं ये इमारतें दडबों सी... जिसमें कई आज़ाद क़ैदी रहते हैं...
उन सबको मेरी खिड़की भी तो दिखती होगी दडबे सी ही...
Note: Hope to paint the vision some day...
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